मनुष्य का मन बहुत बडा जादूगर है । यह एक महान चित्रकार भी है । मन ही बह्म्र शक्ति का तत्व है । वही संकल्प का साधन है । क्योंकि मन के बिना संकल्प नहीं होता और संकल्प के बिना सृष्टि नहीं होती । इस सब के बावजूद मन को समझना सहज नहीं है । क्योंकि मन क्षण-क्षण बदलता है । गीता में भगवान श्री कृष्ण ‘चंचलम् हि मनः कृष्णम्’ कहकर मन को अतिशय चंचल बताते हैं । वह कहते हैं कि जैसे वायु को दबाना कठिन है वैसे ही मन को भी वश में करना कठिन है ।
मन का यह स्वभाव विशेष ही कहा जा सकता है कि यह अंतस की वस्तुओं की उपेक्षा कर बार बार बाहर ताकता रहता है । जैसे चरती हुई बकरियां पर्याप्त घास रहते हुए भी एक खेत से दूसरे खेत में जाती रहती हैं । वैसे ही यह मन भी अपने यर्थाथ स्वरूप की अवहेलना कर व्यर्थ में इधर उधर दौड़ लगाता फिरता है । इसकी गति बहुत ही तीव्र और बेलगाम होती है । मन चाहे तो एक क्षण में अनंत योजना की दौड़ लगाकर आ जाए । चाहे तो किसी प्रिय वस्तु को प्राप्त् कर दीघ्रकाल तक शांत और तीक्ष्ण यानी मौन स्थिति में बैठा रहे । हम अनेक बार महसूस करते हैं कि यह एक ही अवस्था में अनेक विषयों पर एक साथ विचार कर लेता है । मन की स्थिति निश्चियात्मक नहीं होती बल्कि संशयात्मक होती है । इसके संशयात्मक स्वरूप का कारण साधक का अज्ञान और अविश्वास है ।
ऐसे में मन को वश में करने के लिए जरूरी है कि साधक अपनी आवश्यकताओं को निरंतर कम करता जाए । साथ अपनी महात्वाकांक्षओं को भी न्यून से न्यूनतर करता जाए । ऐसा करने से निरंतर अभ्यास और वैराग्य से विषयत्रास्त और बंधनग्रस्त मन निर्विषयक मुक्त मन बन जाता है । इसीलिए उपनिषद कहते हैं कि मन को पूर्ण वश में करने में विषय विहीन म नही समर्थ होता है ।
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